पुराण विषय अनुक्रमणिका

PURAANIC SUBJECT INDEX

(Vishnukraantaa - Vraata )

Radha Gupta, Suman Agarwal & Vipin Kumar

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Vishnukraantaa - Veeravati  (Vishnudaasa, Vishnusharmaa, Veetihotra, Veethi, Veera / brave, Veeraka, Veerabhadra etc.)

Veeravara - Vritti (Veerya, Vrika, Vriksha / tree etc.)

Vritra - Vrishaakapi (Vritra, Vriddha/old, Vrindaa, Vrindaavana, Vrishchika / scorpion, Vrisha / ox, Vrishabha, Vrishaakapi etc)

Vrishaadarbhi - Vedasuuri  (Venu, Vetaala, Veda, Vedavati, Vedashiraa etc.)

Vedaanga - Vairaati ( Vedi, Vena, Velaa, Veshyaa / prostitute,  Vaikuntha, Vairaagya, Vairaaja etc.)

Vairochana - Vyaaghrabhata ( Vaivaswata / Vaivasvata, Vaishampaayana / Vaishampayana, Vaishaakha / Vaishakha, Vaishya, Vaishwaanara, Vaishnava, Vyaakarana / grammer, Vyaaghra / wolf etc. )

Vyaaghramukha - Vrana ( Vyaadha / hunter, Vyaadhi / disease, Vyaasa, Vyuuha, Vyoma, Vraja. Vrata / fast etc.)

Vrata - Vraata ( Vrata / fast etc.)

 

 

व्याघ्र

टिप्पणी

वायुपुराण ६९.१३१/२.८.१२६ में व्याघ्र को निरानन्द का पिता कहा गया है।  इससे संकेत मिलता है कि किसी कार्य को करते समय जब तक उसमें आनन्द नहीं आता, तब तक व्याघ्र उसके फल का भक्षण कर रहा है और निरानन्द को उत्पन्न कर रहा है। अथर्ववेद ४.३ सूक्त रुद्र/व्याघ्र देवता का है । इसमें व्याघ्र की अक्षि - द्वय, मुख और २० नखों के जम्भन का निर्देश है । जम्बू शब्द की टिप्पणी के आधार पर ऐसा कहा जा सकता है कि जम्भन से तात्पर्य यम नियम, संयम आदि नीरस कृत्यों को रसपूर्ण बनाने से है । सूक्त के सातवें मन्त्र से भी इसका परोक्ष संकेत मिलता है

यत्संयमो न वि यमो वि यमो यन्न संयमः ।

इन्द्रजाः सोमजा आथर्वणमसि व्याघ्रजम्भनम् ।।

 टिप्पणी के आरम्भ में ही व्याघ्र और सिंह में अन्तर का उल्लेख करना उपयुक्त होगा। स्कन्दपुराण २.१.१३.३९ में उल्लेख है कि सिंह की मुक्ति तब हुई जब ध्यानकाष्ठ ऋषि से उसका संवाद हुआ। यह संकेत करता है कि सिंह की पराकाष्ठा व्यावहारिक जीवन का त्याग कर समाधि स्थिति प्राप्त करने में है जबकि व्याघ्र की पराकाष्ठा व्यावहारिक जीवन को रसमय बनाने की है। वायुपुराण १०१.३३३/२.३९.३३३ में उल्लेख है कि सिंह आदित्य का रूप है, जबकि व्याघ्र वैश्वानर अग्नि का। आदित्य की प्रकृति तीव्र गति वाली, अद्य प्रकार की होती है जबकि अग्नि की प्रकृति भूत � भव्य से युक्त, मन्द गति वाली होती है।

वैदिक पदानुक्रम कोश में व्याघ्र की निरुक्ति वि घृ के रूप में की गई है जहां घृ धातु को क्षरणे अर्थ में कहा गया है । लेकिन व्याघ्र शब्द को कर्मकाण्ड के आघार और व्याघारण कृत्यों के आधार पर समझा जा सकता है । आघार कृत्य का रहस्य शतपथ ब्राह्मण १.४.४.१ में दिया गया है । दर्शपूर्ण मास इष्टि में दो आघारों का विधान है । इनमें से पहला आघार मन के द्वारा तूष्णीं रहकर स्रुवा नामक पात्र में आज्य लेकर दिया जाता है । दूसरा आघार वाक् के द्वारा मन्त्र सहित स्रुचा नामक पात्र में आज्य लेकर दिया जाता है । कहा गया है कि पहला आघार मूल है तथा दूसरा आघार शीर्ष है । मूल तूष्णीं ही है, वहां कोई वाक् नहीं होती । वाक् शीर्ष से निकलती है । इसके पश्चात् शतपथ ब्राह्मण १.४.५.८ में मन और वाक् के बीच श्रेष्ठता के झगडे का आख्यान दिया गया है । प्रजापति ने निर्णय दिया कि मन श्रेष्ठ है जिस पर वाक् का गर्भपात हो गया और वाक् ने कहा कि वह प्रजापति के लिए हवि का वहन नहीं करेगी । इसी कारण से प्रजापति के लिए आहुति तूष्णीं रहकर दी जाती है । व्याघारण कृत्य सोमयाग में उत्तरवेदी निर्माण के समय किया जाता है(शतपथ ब्राह्मण ३.५.१.३४ इत्यादि) । इस कृत्य में उत्तरवेदी पर आज्य दिया जाता है और वाक् रूपी उत्तरवेदी को सिंही कह कर सम्बोधित किया जाता है ।  व्याघारण शब्द व्याघ्र के बिल्कुल निकट है । इस व्याघारण के पीछे एक आख्यान दिया गया है । अङ्गिरसगण आदित्यों के सद्यःक्री नामक याग में ऋत्विज बने और उन्हें दक्षिणा रूप में वाक् दी गई लेकिन उन्होंने इसे लेने से अस्वीकार कर दिया । इस पर वह वाक् सिंही बन गई । वह देवों और असुरों के बीच विचरने लगी । देवों ने उससे कहा कि वह हमारी ओर आ जाए, हम उसे अग्नि से पहले आहुति देंगे । वह देवों की ओर आ गई । उसने देवों से कहा कि उनकी जो इच्छा होगी, उसकी वह पूर्ति करती रहेगी । अतः ऋत्विज गण यजमान के लिए जो कुछ मांगना होता है, वह इस वाक् से मांगते हैं । आहुति के रूप में जब मृदा खनन करके उत्तरवेदी का निर्माण किया जाता है, तब आज्य से व्याघारण कृत्य के रूप में आज्य की आहुतियां दी जाती हैं । इन आहुतियों को देते समय उत्तरवेदी को सिंही नाम से पुकारा जाता है तथा उसके साथ विभिन्न विशेषण लगाए जाते हैं जैसे सपत्नसाही, आदित्यवनि, ब्रह्मवनि, सुप्रजावती, रायस्पोषवनि आदि( वाजसनेयि संहिता ५.१२, शतपथ ब्राह्मण ३.५.२.१२) । इस व्याघारण कृत्य में व्याघ्र जैसा तो प्रत्यक्ष रूप में कुछ भी नहीं है ।  इससे आगे व्याघ्र की व्याख्या पुराणों की इस सार्वत्रिक कथा के आधार पर की जा सकती है कि नन्दिनी गौ अरण्य में शिव के बाण लिङ्ग का अपने दुग्ध से अभिषेक कर रही थी कि इतने में एक व्याघ्र आ गया और उसने गौ का भक्षण करना चाहा । गौ ने कहा कि वह अपने वत्स को दुग्धपान कराकर वापस आती है और तब व्याघ्र उसे खा ले । जब गौ वापस आई तो व्याघ्र को आश्चर्य हुआ । तब व्याघ्र अपने व्याघ्रत्व को त्याग कर मनुष्य राजा का रूप ग्रहण कर लेता है और वह गौ से बताता है कि किस प्रकार वह शापवश व्याघ्र बन गया था और उसकी शाप से मुक्ति इस प्रकार नियत थी कि जब उसका नन्दिनी गौ से संवाद होगा, तब उसकी मुक्ति हो जाएगी । इसी बीच व्याघ्र से मनुष्य बने राजा के समक्ष शिव का बाण लिङ्ग प्रकट हो जाता है जो अब तक गौ के लिए तो दृश्य था, व्याघ्र के लिए नहीं । तब राजा अपने को बाण लिङ्ग की सेवा में अर्पित कर देता है । इस कथा में नन्दिनी गौ वाक् का, सात्विक प्रकृति वाली वाक् का प्रतीक हो सकती है । व्याघ्र का कार्य यह है कि जो वाक् सात्त्विक प्रकृति की नहीं है, उसका वह भक्षण कर ले । बाण लिंग से तात्पर्य भी बाण अर्थात् वाक् से है । वीणा को भी बाण कहते हैं । इसका अर्थ यह हुआ कि पुराणों की कथा में व्याघ्र और गौ दो जीवों का अस्तित्व है । लेकिन वास्तव में यह एक ही हैं । वैदिक साहित्य में जिसे सिंही कहा जा रहा है, वह वास्तव में व्याघ्र की ही विनाशक शक्ति है जिसका सदुपयोग दुर्गुण रूपी अपने शत्रुओं के विनाश हेतु करना है ।  अथर्ववेद शौनक संहिता ४.२२.७ के अनुसार

सिंहप्रतीको विशो अद्धि सर्वा व्याघ्रप्रतीको अव बाधस्व शत्रून् ।

अर्थात् सिंह का कार्य सर्वा विशः का भक्षण करना होता है और व्याघ्र का कार्य शत्रुओं से रक्षा करना होता है । जब दुर्गुण पूरी तरह समाप्त हो जाएंगे तो व्याघ्र का भी रूपान्तरण हो जाएगा ।

     यदि पुराण कथा में नन्दिनी गौ वाक् का प्रतीक है तो व्याघ्र मन का, मन्यु का प्रतीक होना चाहिए । व्याघ्र के पूर्व मनुष्य नामों में प्रभञ्जन, सुप्रभ, कलश, दीर्घबाहु आदि नाम आए हैं ।

     वायु पुराण १०१.२९४ में प्रश्नोत्तर के रूप में कहा गया है कि जो शिव के परितः सिंह हैं, वह महाभूत हैं तथा वैश्वानरमय पाश से बद्ध हैं । वह शिव से उत्पन्न क्रोध का रूप हैं । वायु पुराण १०१.३३३/२.३९.३३३ में प्रश्न उठाया गया है कि शिव के परितः रहने वाले जो क्रोध रूपी बल वाले आदित्य रूपी सिंह हैं तथा जो उनके अनुगामी वैश्वानर रूपी भूतगण हैं, उनका प्रलयकाल में क्या रूप हो जाता है । इसका उत्तर १०१.३४४ में इस प्रकार दिया गया है कि जो आदित्य रूपी सिंह हैं तथा जो वैश्वानर रूपी भूत भव्य गुण वाले व्याघ्र हैं, उन सबको आत्मा में लीन कर लिया जाता है और विष्णु के साथ युक्त वियुक्त किया जाता है । इससे अगले अध्याय अर्थात् १०२ में यह वर्णन है कि महाभूतों का ग्रसन प्रत्याहार द्वारा कैसे किया जाता है । पहले आपः भूमि के गन्ध गुण को ग्रसते हैं । इससे भूमि का प्रलय हो जाता है और वह तोयरूपा हो जाती है । फिर आपः के रस गुण का लय ज्योति में हो जाता है । इससे आपः नष्ट हो जाता है । अग्नि आपः को ग्रस लेती है । ज्योति के रूप गुण का लय वायु में हो जाता है । इससे अग्नि नष्ट हो जाती है । वायु के स्पर्श गुण का लय आकाश में हो जाता है जिससे वायु शान्त हो जाती है । आकाश के शब्द तन्मात्र का ग्रसन भूतादि में हो जाता है जिससे आकाश नष्ट हो जाता है । यह भूतादि तामस कहलाता है । भूतादि का ग्रसन बुद्धि लक्षण वाले महान् द्वारा हो जाता है । इस महानात्मा को संकल्प, व्यवसाय आदि भी कहा जाता है । महान् का ग्रसन अव्यक्त द्वारा हो जाता है । इससे आगे गुणसाम्य हो जाता है । इस अव्यक्त से ब्रह्मा सृष्टि करते हैं । इससे आगे क्षेत्र क्षेत्रज्ञ, विषय अविषय आदि का वर्णन है । उपरोक्त वर्णन से एक तथ्य स्पष्ट होता है कि व्याघ्र की स्थिति में भूत भव्य विद्यमान रहते हैं । यह वैश्वानर की स्थिति है । सिंह की स्थिति आदित्य की स्थिति है जहां भूत भव्य का अस्तित्व नहीं होता ।

          व्याघारण कृत्य केवल उत्तरवेदी रूपी वाक् तक सीमित नहीं है, प्राण के व्याघारण के भी उल्लेख मिलते हैं । शतपथ ब्राह्मण ४.४.२.७ तथा तैत्तिरीय संहिता ६.३.१.४ में अध्वर्यु द्वारा शालाकों से धिष्ण्य अग्नियों के व्याघारण का कथन है । धिष्ण्य अग्नियों को प्राणों का रूप कहा गया है । सामान्य रूप से धिष्ण्य अग्नियां ८ होती हैं जो द्विनामा होती हैं(वाजसनेयि संहिता ५.३१ )। व्याघ्र को आगे समझने के लिए यह एक नई दिशा है। तैत्तिरीय संहिता ६.२.११.३ में प्राण रूपी उपरवों के व्याघारण का कथन है ।

          यह उल्लेखनीय है कि यज्ञों में आरण्यक पशुओं का आलभन नहीं किया जाता, केवल उनके लोमों का ग्रहण किया जाता है ।  

संदर्भों की पूर्णता के लिए, शतपथ ब्राह्मण ९.२.१.५ तथा तैत्तिरीय संहिता ५.४.५.१ में चित्य अग्नि में स्वयमातृण्णा इष्टकाओं के व्याघारण का कथन है । कहा गया है कि यद्यपि चित्यग्नि भी उत्तरवेदी का रूप है, तथापि उत्तरवेदी प्रत्यक्ष है जबकि स्वयमातृण्णा परोक्ष । अतः स्वयमातृण्णा का व्याघारण भी परोक्ष रूप से, स्वाहाकार का उच्चारण न करते हुए नृषद् वेट् इत्यादि कह कर किया जाता है । शतपथ ब्राह्मण ३.८.३.३५ में दिशाओं के सापेक्ष व्याघारण का कथन है ।

अथर्ववेद ८.५.१२ में मणि धारण करने वाले के व्याघ्र, सिंह, वृष आदि बनने का उल्लेख है

स इद्व्याघ्रो भवत्यथो सिंहो अथो वृषा ।

अथो सपत्नकर्शनो यो बिभर्तीमं मणिम् ।।

अथर्ववेद ४.८.७ में आपः द्वारा व्याघ्र के परिसिंचन का उल्लेख है

एना व्याघ्रं परिषस्वजानाः सिंहं हिन्वन्ति महते सौभगाय ।

इसी सूक्त के चौथे मन्त्र में भी व्याघ्र का उल्लेख है

व्याघ्रो अधि वैयाघ्रे वि क्रमस्व दिशो महीः ।

विशस्त्वा सर्वा वाञ्छन्त्वापो दिव्याः पयस्वतीः ।।

अथर्ववेद १९.३९.४ में व्याघ्र के श्वापदों में श्रेष्ठ होने का उल्लेख है

उत्तमो अस्योषधीनामनड्वान् जगतामिव व्याघ्रः श्वपदामिव ।

इस मन्त्र में श्वपद से तात्पर्य भूत भव्य से सम्बन्ध के रूप में समझा जा सकता है । यह मन्त्र कुष्ठ नामक ओषधि के विषय में है ।

तैत्तिरीय संहिता ४.३.५.१ इत्यादि में व्याघ्र के वय रूप के लिए अनाधृष्ट छन्द का उल्लेख है । तैत्तिरीय संहिता ५.३.१.५ में द्वितीय चिति में इष्टका स्थापना के संदर्भ में निर्देश है कि व्याघ्रो वय का उच्चारण करके दक्षिण पक्ष में इष्टका की स्थापना की जाती है जबकि सिंहो वय का उच्चारण कर उत्तर पक्ष में ।

अथर्ववेद ६.१४०.१ में ऊपर के दो दांतों को व्याघ्र द्वय की संज्ञा दी गई है जो पिता व माता को हानि पहुंचाते हैं

यौ व्याघ्राववरूढौ जिघत्सतः पितरं मातरं च ।

तौ दन्तौ ब्रह्मणस्पते शिवौ कृणु जातवेदः ।।

 शतपथ ब्राह्मण १२.७.१.८ में सौत्रामणि याग के संदर्भ में उल्लेख आता है कि इन्द्र ने त्वष्टा के याग में संगृहीत सोम अनुपहूत होते हुए भी पी लिया । इससे वह सोम उसके विभिन्न अंगों से विभिन्न रूपों में स्रवित हुआ । मूत्र के द्वारा ओज स्रवित हुआ जो वृक बन गया, ऊबध्य के द्वारा मन्यु स्रवित हुआ जो व्याघ्र बन गया । लोहित के द्वारा सह स्रवित हुआ जो सिंह बन गया । इन्द्र के जो जो बल स्रवित हुए, सौत्रामणि याग द्वारा उनकी चिकित्सा की जाती है, उन बलों की पुनः इन्द्र में स्थापना की जाती है । शतपथ ब्राह्मण का यह कथन व्याघ्र के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण तथ्य प्रस्तुत करता है । जैसा कि वृक शब्द की टिप्पणी में कहा जा चुका है, जो स्थिति इन्द्र की कही गई है, वह हम सबकी है । हम अनुपहूत होते हुए ही प्रकृति के सोम रूपी रसों का पान कर रहे हैं । वह हमारे मूत्र, ऊबध्य , लोहित आदि द्वारा स्रवित हो रहे हैं और उससे वृक, व्याघ्र, सिंह आदि आरण्यक पशुओं का जन्म हो रहा है । ग्राम्य पशुओं पर तो नियन्त्रण पाया जा सकता है, आरण्यक पशुओं पर नहीं । वृक तथा ओज शब्दों की टिप्पणियों में कहा जा चुका है कि ओज का अर्थ है ओ से, एक resonance से जन्मा हुआ । resonance  का आधुनिक विज्ञान में अनुवाद अनुनाद किया जाता है लेकिन यह शब्द ओ को व्यक्त करने के लिए ठीक प्रतीत नहीं होता । ओ वह स्थिति है जब किसी पात्र में ऊर्जा भरी हो और उसका क्षय न हो रहा हो । ऐसी स्थिति में उस पात्र की ऊर्जा को नियन्त्रित रूप से बाहर निकाला जाता है । इसे ओज कह सकते हैं । शतपथ ब्राह्मण कह रहा है कि ओज का क्षय मूत्र के रूप में हो गया । मूत्र देह के स्तर पर पर्जन्य वर्षा का परिणाम है, वैसे ही जैसे आकाश से वर्षा होती है । देह में वर्षा के लिए वृक्क या kidney अवयव उत्तरदायी होता है जो रक्त का शोधन करता रहता है । इसे ही लगता है वेद की भाषा में वृक कहा गया है । इसी प्रकार कहा जा रहा है कि ऊबध्य के कारण मन्यु का क्षरण हुआ जिससे व्याघ्र की उत्पत्ति हुई । ऊबध्य आमाशय अथवा आन्त्र  में स्थित आधे पचे हुए भोजन को कहते हैं । योग में मूत्र और पुरीष का वर्जन किया जाता है । कहा जाता है कि देवगण मूत्र और पुरीष से रहित होते हैं । यह विचारणीय है कि किन स्थितियों में ऊबध्य का निरोध किया जा सकता है तथा देह के स्तर पर उससे क्या क्या लाभ हो सकते हैं । यदि जठराग्नि बहुत प्रबल हो और मुख द्वारा ग्रहण किया गया भोजन सोम की भांति हो तभी ऊबध्य का बनना रोका जा सकता है । स्थूल भोजन को पचाने के लिए यकृत से पित्त का क्षरण होता है जो पक्व रस में क्षारत्व उत्पन्न करता है तथा भोजन को सडने से भी बचाता है । इसी प्रकार आन्त्र में ज्ञात अज्ञात अन्य रसों का स्रवण होता होगा । पित्त के बारे में लक्ष्मीनारायण संहिता में उल्लेख आता है कि पित्त की हानि रोकने से देह में स्वर्णिम कान्ति उत्पन्न होती है, देह स्वर्ण सदृश पीत रंग की बनती है, वैसे ही जैसे पाण्डु रोग में हो जाता है । मूत्र के स्रवण से तो वृक की उत्पत्ति हुई थी जिसका तादात्म्य हमने वृक्क से कर दिया है । ऊबध्य के स्रवण से व्याघ्र की उत्पत्ति कही गई है । अब प्रश्न यह उठता है कि वृक की भांति व्याघ्र का तादात्म्य देह के कौन से अंग से स्थापित किया जा सकता है । पित्त का जनन यकृत से होता है । अतः यकृत व्याघ्र का रूप होना चाहिए । लेकिन पैप्पलाद संहिता १६.१३९ का कथन है

क्षुत् कुक्षिर् इरा वनिष्ठुः पर्वताः प्लाशयः ।

देवजना गुदा मनुष्या आन्त्राण्य् अत्रा उदरम् ।

इतरजना ऊबध्यं रक्षांसि लोहितम् ।

क्रोधो वृक्कौ मन्युराण्डौ प्रजा शेपः ।

अर्थात् वृक्क - द्वय क्रोध का रूप हैं, आण्ड द्वय मन्यु का तथा शिश्न प्रजा का । अन्यत्र मन्यु को व्याघ्र कहा गया है । अतः पैप्पलाद संहिता के इस कथन से व्याघ्र का तादात्म्य आण्ड द्वय से बैठता है । अण्डों का कार्य वीर्य उत्पन्न करना होता है । ऊबध्य का जनन वीर्य जनन के कार्य में किस प्रकार व्यवधान उत्पन्न करता है, यह अन्वेषणीय है ।

प्रथम प्रकाशित २४-९-२०१०(आश्विन् कृष्ण प्रतिपदा, विक्रमी संवत् २०६७), संशोधन २७-११-२०१७ई.(पौष शुक्ल अष्टमी, विक्रम संवत् २०७४)

 

According to vedic literature, a person is not authorised to enjoy the fruits of bliss available in nature. He has to strive, make efforts to produce these pleasures from his own penances. If he violates this rule, then his god � gifted powers are weakened. Power of resonance exits in the form of urine, power of virtuous anger in the form of shit, power of harmony in the form of blood. These decayed powers assume the forms of wolf, tiger and lion. The decayed power of virtuous anger assumes the form of tiger. If one wants to regain these powers, there has been described a ritual called Sautraamani.

          Previously, it was possible to pinpoint the the power decayed due to urine with kidney in the body. Is it possible to pinpoint the source of power decayed due to shit/night soil with some part of our body? It can be our liver. But vedic literature says it is our testicles.

          Regarding the origin of Sanskrit word Vyaaghra for tiger, there is a ritual in soma yaaga where oblations are offered to speech which forms the higher altar. This ritual has been named Vyaaghaarana. In this ritual, while offering oblations, the altar or speech is repeatedly called a lioness with various virtuous adjectives with it. But the name Vyaaghraa nowhere appears here. It is the jugglery of puraanic literature which has itroduced the story of tiger and cow. Briefly, according to this story, a cow is dripping her milk on a shiva linga when a tiger appears and wants to eat the cow. Cow requests that let her feed her calf first and then he can eat her. The tiger agrees for this and when the cow returns, virtuous qualities develop in tiger and he transforms into a man . He tells the cow that he was a king who for certain curse got transformed into a tiger. In the meanwhile, the shiva linga which was visible to cow but not to tiger also becomes visible to the transformed person. In this story, tiger and cow are two separate entities. But in the ritual of vedic literature, these are one entity. One has to develop her powers which are at present lying in the form of a lioness.

          One puraanic text states that lion is the form of suns, tiger is the form of five gross  elements and their subtle form in the form of fire. Tiger form is bound with past and present, cause and effect.